किशोरीलाल गोस्वामी की ख्याति हिंदी ऐतिहासिक उपन्यास लेखन के प्रवर्तक तथा परवर्ती भारतेंदु युग एवं द्विवेदी युग के प्रतिष्ठित रचनाकार के रूप में है जिनका जन्म माघ कृष्ण सन 1922 वृंदावन में हुआ था। इनके पिता वासुदेवलाल और पितामह गोस्वामी केदारनाथ थे। गोस्वामी केदारनाथ वृंदावन में अटलबिहारी जी के मंदिर के महंत थे। वे निंबार्क कुल के आचार्य थे और संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। धार्मिक और शास्त्रीय साहित्य में उनकी गहरी रुचि थी। अपने पुत्र वासुदेवलाल का विवाह उन्होंने काशी के गोस्वामी चैतन्यदेव की पुत्री से किया, जिससे किशोरीलाल गोस्वामी उत्पन्न हुए। हिंदी कोविद रत्नमाला में श्यामसुंदरदास ने इनका परिचय देते हुए लिखा है - 'जिला मथुरा, इलाका शेरपुर, परगना छाता के अंतर्गत गाँव बसई खुर्द के माफीदार और वृंदावन केशीघाटस्थ श्री ठाकुर अटलबिहारी जी के मंदिर के स्वत्वाधिकारी एवं सेवाधिकारी तथा श्रीमदभगवद निंबार्क-संप्रदाययाचार्य श्रीस्वयंभूदेवजी के वंशधर राजमान्य श्रीमदगोस्वामी केदारनाथजी वृंदावन के एक बड़े विद्वान पुरुष हो गए हैं। जिन्होंने ब्रह्मसूत्र और गीता पर भाष्य तथा श्रीमद्भागवत पर तिलक निर्माण किए हैं। उक्त गोस्वामी जी के पुत्र गोस्वामी वासुदेवलालजी यद्यपि अपने पिता के समान बहुत बड़े विद्वान नहीं हुए पर तोभी बहुत कुछ थे; क्योंकि इनकी जीवन संबंधी घटनाएँ अद्भुत और रहस्यपूर्ण हैं। इनकी प्रथम सहधर्मिणी की अकाल मृत्यु हो जाने पर इनका दूसरा विवाह काशी के श्रीगोस्वामी कृष्ण चैतन्य देव जी की कन्या से हुआ जिनसे हमारे चरितनायक का जन्म संवत 1922 माघकृष्ण अमावस्या को हुआ था।' पारिवारिक और वंशानुगत संस्कारों ने गोस्वामी जी के ऊपर गहरा प्रभाव डाला था। वैष्णव भक्ति और सनातन धर्म में उनकी गहरी आस्था थी। उधर नाना श्रीकृष्ण चैतन्यदेव का घर राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद के पड़ोस में था, भारतेंदु हरिश्चंद्र श्रीकृष्णचैतन्य देव को अपना साहित्यिक गुरु मानते थे। नौ-दस वर्ष की अवस्था से ही किशोरीलाल अपने नाना के साथ भारतेंदु हरिश्चंद्र के दरबार में जाया करते थे। किशोरीलालगोस्वामी ने साहित्य में आचार्य तथा अन्य कई विषयों में प्रथमा परीक्षा तक शिक्षा प्राप्त की थी। आठ वर्ष की अवस्था में यज्ञोपवीत संस्कार के बाद संस्कृत में व्याकरण, वेदांत, न्याय, सांख्य, योग और ज्योतिष की परीक्षाएँ देते हुए वे युवा हुए फिर साहित्य में आचार्य की परीक्षा दी, पिता के साथ कुछ दिन आरा में रहे और पंडित पीतांबर मिश्र तथा पंडित रुद्रदत्त जी से व्याकरण इत्यादि की शिक्षा ग्रहण की थी। संवत 1947 अर्थात सन 1890 के लगभग ये काशी आकर ही बस गए थे। काशी के तत्कालीन साहित्यिक और धार्मिक वातावरण ने किशोरीलाल गोस्वामी के साहित्यिक व्यक्तित्व का निर्माण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारतेंदु हरिश्चंद्र और भारतेंदु मंडल के अन्य कई रचनाकारों के सत्संग के प्रभाव और निजी संस्कारवश किशोरीलाल गोस्वामी ने हिंदी भाषा को साहित्य-सेवा को अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया। इन्होंने कविता, जीवन-चरित, नाटक, उपन्यास इत्यादि अनेक विधाओं में रचनाएँ की साथ ही विविध विषयों पर लेख लिखने के साथ-साथ 'उपन्यास' नामक एक मासिक पत्र भी निकाला। गोस्वामी जी की ख्याति का मूल आधार उनके लिखे लगभग 65 उपन्यास हैं। भारतेंदु हरिश्चंद्र की प्रेरणा से ही वे उपन्यास लेखन में प्रवृत्त हुए थे। इनका पहला उपन्यास 'प्रणयिनी परिणय' था जिसका प्रकाशन 1890 ई. में हुआ था। काशी के साहित्य सेवियों के बीच में वे एक गंभीर अध्येता और अनुभवी रचनाकार के रूप में जाने जाते थे। जीवन के विभिन्न पक्षों को इन्होंने अपनी कल्पना का आधार देकर कथा में पिरोया। हिंदी साहित्य के इतिहास लेखकों ने इनके उपन्यासों की संख्या पैंसठ बताई है। डॉ. श्यामसुंदरदास ने इन सब उपन्यासों का नामोल्लेख करते हुए कुछ को पूर्ण और कुछ को अपूर्ण बताया है। पं. रामनरेश त्रिपाठी ने भी इनके उपन्यासों की जो सूची प्रस्तुत की है उनमें कहानियाँ और अनूदित उपन्यास दोनों शामिल हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने श्यामसुंदर दास और रामनरेश त्रिपाठी के कथन के आधार पर लिखा कि गोस्वामी जी ने '65 छोटे-बड़े उपन्यास लिखकर प्रकाशित किए।' प्रेमचंद पूर्व के हिंदी उपन्यासों पर लिखते हुए श्री ज्ञानचंद जैन ने किशोरीलाल गोस्वामी के लिखे 32 उपन्यासों का प्रकाशन, पृष्ठ संख्या और मूल्य सहित विवरण दिया है। किशोरीलाल गोस्वामी की मृत्यु सन 1932 में हो गई जिसके बाद उनके पुत्र छबीलेलाल गोस्वामी के पास जितने भी उपन्यास थे वे ज्ञानचंद जैन को मिले जिनका विवरण ज्ञानचंद जैन ने इस प्रकार दिया है -
(1.) प्रणयिनी परिणय- पृष्ठ संख्या 23, छपा हुआ मूल्य दो आने, बढ़ाया हुआ मूल्य तीन आने। दूसरी बार 1916 ई.। प्रथम की भूमिका दिनांक 1-3-87 की। द्वितीय संस्करण की भूमिका 12-7-1916 की, जिसमें सूचित किया गया है कि 'यह उपन्यास 1887 में रचा गया था जब हमारी युवा अवस्था थी और 1890 ई. में यह भारत जीवन प्रेस से छपा। जब यह उपन्यास लिखा गया था, उस समय यह बाबू गदाधर सिंह की 'कादंबरी तथा लाला श्रीनिवासदास के 'परीक्षा गुरु' के बाद हिंदी में तीसरा उपन्यास माना गया था।
(2.) लावण्यमयी (बंगभाषा के आश्रय से) - पृष्ठ संख्या 30, छपा हुआ मूल्य दो आने, बढ़ाया हुआ मूल्य दो आने। दूसरी बार 1961 ई.। प्रथम संस्करण की भूमिका 25-8-1891 की। द्वितीय संस्करण की भूमिका 12-7-1916 की जिसमें लिखा गया है कि यह उपन्यास 1888 ई. लिखा गया है और 1891 ई. में भारत जीवन प्रेस में छपा था।
(3.) सुख शर्वरी (बंगभाषा के आश्रय से) - पृष्ठ संख्या 57, छपा हुआ मूल्य चार आने, बढ़ाया हुआ मूल्य पाँच आने। दूसरी बार 1916 ई.। प्रथम संस्करण की भूमिका 1 अक्तूबर 1891 ई. की। द्वितीय संस्करण की भूमिका 11-8-1916 की जिससे प्रकट होता है कि यह उपन्यास सन 1888 में लिखा गया और सन 1891 में भारत जीवन प्रेस में छपा।
(4.) प्रेममयी (बंगभाषा के आश्रय से) - पृष्ठ संख्या 36, छपा हुआ मूल्य तीन आने, बढ़ाया हुआ मूल्य चार आने। दूसरी बार 1914 ई.। निवेदन में बताया गया है - '1889 ई. में हम कलकत्ते में रद्दीखाने से बहुत-सी पुस्तकें खरीद लाए थे, उनमें फटा-चिथा यह प्रेममयी उपन्यास भी था।' यह उपन्यास बूँदी रियासत से प्रकाशित तथा लज्जाराम मेहता द्वारा संपादित पाक्षिक सर्वहित में (1890 में प्रकाशित) समाप्तप्राय छपा था।
(5.) इंदुमती वा वनविहंगिनी (ऐतिहासिक उपन्यास) - पृष्ठ संख्या 26, छपा हुआ मूल्य दो आने, बढ़ाया हुआ मूल्य तीन आने। तीसरी बार 1914 ई. 1900 ई. में जब प्रयाग से सरस्वती निकली तो उसके संपादक मंडल में किशोरी लाल गोस्वामी भी थे। यह उपन्यास पहली बार सरस्वती की छठवीं संख्या में छपा।
(6.) गुलबहार वा आदर्श भ्रातृस्नेह - परिवर्तित-परिवर्द्धित और संशोधित आवृत्ति, दूसरी बार 1915 ई.। पृष्ठ संख्या 41, छपा हुआ मूल्य तीन आने, बढ़ाया हुआ मूल्य चार आने। पहली बार सन 1902 की सरस्वती के दो अंकों में छपा।
(7.) लवंगलता वा आदर्श बाला (हृदयहारिणी उपन्यास का उपसंहार) - पृष्ठ संख्या 99, छपा हुआ मूल्य आठ आने, बढ़ाया हुआ मूल्य दस आने। दूसरी बार 1915। प्रथम संस्करण का 'निवेदन' 1 जून 1904 ई. का, जिसमें सूचना है कि 'हृदयहारिणी उपन्यास तेरह वर्ष पूर्व हिंदी के एक मात्र दैनिक हिंदोस्थान (1890 ई.) में छपा था। उस समय लेखक के परम मित्र पंडितवर प्रतापनारायण मिश्र उसका संपादन करते थे। 'हृदयहारिणी' उपन्यास के समाप्त होने पर यह 'लवंगलता' उपन्यास भी हिंदोस्थान में छपने वाला था, पर स्वाधीनचेता प्यारे प्रतापमिश्र ने कई महीने संपादन करके हिंदोस्थान छोड़ दिया, अतएव लवंगलता बसते में पड़ी रही। 1904 में यह उपन्यास मासिक पुस्तक में प्रकाशित हुआ। दूसरी बार 1915 में छपा।'
(8.) तारा वा क्षात्र-कुल-कमलिनी (ऐतिहासिक उपन्यास) - प्रथम भाग, पृष्ठ संख्या 90। छपा हुआ मूल्य आठ आने, बढ़ाया हुआ मूल्य दस आने। तीसरी बार 1925 ई.। दूसरा भाग, पृष्ठ संख्या 94। छपा हुआ मूल्य आठ आने, बढ़ाया हुआ मूल्य दस आने। दूसरी बार 1914 ई.। तीसरा भाग, पृष्ठ संख्या 87, छपा हुआ मूल्य आठ आने, बढ़ाया हुआ मूल्य दस आने। दूसरी बार 1915 ई.।
डॉ. माता प्रसाद गुप्त रचित 'हिंदी पुस्तक साहित्य तथा डॉ. गोपाल राय रचित हिंदी उपन्यास कोश के अनुसार यह उपन्यास पहली बार 1902 में छपा। मेरे पुस्तकालय में इसका द्वितीय संस्करण है। उसके वक्तव्य से, जिस पर कोई तिथि नहीं है, प्रकट होता है कि बंबई के श्री वेंकेटेश्वर समाचार ने 22 मई (1903) के अंक में तारा की समालोचना की और अर्जुन को बूँदी का राजकुमार बतलाना अनुचित ठहराया। इसी पर 15 जून के अंक में पाक्षिक राजपूत ने भी लिखा कि अर्जुन बूँदी ही का न था, किंतु चौहान क्षत्रिय भी न था, अर्जुन गौड़ क्षत्रिय था। 3 जुलाई के श्री वेंकेटेश्वर समाचार को पढ़कर भारत मित्र संपादक बालमुकुंद गुप्त को मालूम हुआ कि गोस्वामी जी और श्री वेंकेटेश्वर समाचार के संपादक में राजीनामा हो गया और गोस्वामी जी ने यह मान लिया कि अमर सिंह का साला अर्जुन गौड़ था, हाड़ा नहीं था, न वह बूँदी का राजकुमार था।
तारा उपन्यास पहली बार गोस्वामी जी द्वारा संपादित उपन्यास मासिक पत्र में छपा। द्वितीय संस्करण के वक्तव्य में उन्होंने सफाई दी कि हमने भारतेंदु हरिश्चंद्र के पुरावृत्त संग्रह के आधार पर तारा में अर्जुन को बूँदी का राजकुमार लिखा था, किंतु इन सहयोगियों (श्री वेंकेटेश्वर समाचार तथा राजपूत) के तर्क पर विचार करने से हमको जान पड़ा कि भारतेंदु जी को भ्रम हुआ होगा। पाठक उसे (अर्जुन को) बूँदी का राजकुमार न समझें।
गोस्वामी जी इस सफाई के बाद श्री वेंकेटेश्वर समाचार ने तारा को हिंदी साहित्य में चमकता हुआ तारा स्वीकार कर उसे आधुनिक उपन्यासों में उच्च स्थान प्रदान किया। श्री वेंकेटेश्वर समाचार की इस प्रशंसा पर भारत मित्र संपादक बालमुकुंद गुप्त ने अपने सहयोगी की खूब खिचाई की और तारा उपन्यास की एक लंबी समालोचना लिखी और दिखाया कि उसमें दारा, जहाँनारा आदि पात्रों के बीच जिस प्रकार का वार्तालाप कराया गया है, वह अत्यंत अस्वाभाविक और कुरुचिपूर्ण है।
(9.) सुल्ताना रज़िया बेगम वा रंगमहल में हलाहल' - पहला भाग, पृष्ठ संख्या 113। छपा हुआ मूल्य दस आने, बढ़ाया हुआ मूल्य बारह आने। दूसरी बार 1915 ई.। उपोद्घात 1 जनवरी 1904 ई. का लिखा हुआ। दूसरा भाग, पृष्ठ संख्या 112। छपा हुआ मूल्य दस आने, बढ़ाया हुआ मूल्य बारह आने। दूसरी बार 1915 ई.। यह पहली बार उपन्यास मासिक पुस्तक में छपा था।
(10.) हीराबाई वा बेहयाई का बोरका (ऐतिहासिक उपन्यास) - पृष्ठ संख्या 23, छपा हुआ मूल्य दो आने, बढ़ाया हुआ मूल्य तीन आने। दूसरी बार 1914 ई.। हिंदी उपन्यास कोश के अनुसार पहली बार 1904 ई. में तथा हिंदी पुस्तक साहित्य के अनुसार 1905 में छपा।
(11.) तरुण तपस्विनी वा कुटीर वासिनी - पृष्ठ संख्या 132। छपा हुआ मूल्य दस आने, बढ़ाया हुआ मूल्य बारह आने। दूसरी बार 1915 ई.। हिंदी पुस्तक साहित्य तथा हिंदी उपन्यास कोश के अनुसार पहली बार 1905 ई. छपा।
(12.) चंद्रावली वा कुलटा कुतूहल - पृष्ठ संख्या 28, छपा हुआ मूल्य दो आने, बढ़ाया हुआ मूल्य तीन आने। तृतीय बार 1914 ई.। हिंदी उपन्यास कोश के अनुसार 1904 ई. में तथा हिंदी पुस्तक साहित्य के अनुसार 1905 में पहली बार छपा।
(13.) जिंदे की लाश (जासूसी उपन्यास) - पृष्ठ संख्या 32, छपा हुआ मूल्य दो आने, बढ़ाया हुआ मूल्य तीन आने। द्वितीय बार 1914 ई.। हिंदी प्रदीप के जुलाई 1906 के अंक में छपे विज्ञापन से विदित होता है कि किशोरी लाल गोस्वामी ने गुप्तचर नाम से जासूसी उपन्यास मासिक पत्र भी निकाला था और उसकी पहली संख्या में यह उपन्यास पहली बार छपा था।
(14.) माधवी-माधव वा मदन-मोहिनी (दो भागों में) - पहले भाग की पृष्ठ संख्या 219, मूल्य सवा रुपया। दूसरे भाग की पृष्ठ संख्या 224, मूल्य सवा रुपया। पहला भाग दूसरी बार 1926 में तथा दूसरा भाग तीसरी बार 1940 में छपा। पहले भाग में छपे विशेष वक्तव्य से विदित होता है कि यह उपन्यास सत्य घटना पर आधारित था। हिंदी उपन्यास कोश के अनुसार पहली बार 1909 ई. में छपा।
उपरोक्त उपन्यासों के अतिरिक्त मेरे पुस्तकालय में उनका लिखा अँगूठी का नगीना भी है, जिसकी प्रस्तावना का पहला पृष्ठ तथा आरंभ का पहला पृष्ठ फटा है। यह पहली बार 1918 में छपा। यह सत्य घटना पर आधारित था। उनका सत्य घटना समन्वित पहला उपन्यास स्वर्गीय कुसुम व कुसुम कुमारी था जो पहली बार 1901 में छपा। इसके विस्तृत नोट्स मेरे रजिस्टर में हैं। एक अन्य उपन्यास लीलावती वा आदर्श सती (पृष्ठ संख्या 374, पहली बार छपा 1901 में) के विस्तृत नोट्स भी मेरे रजिस्टर में हैं। पंडित अमृतलाल नागर के पुस्तकालय में उनके उपन्यास लखनऊ की कब्र वा शाही महलसरा की प्रति है। कई भागों के पन्ने फटे हुए हैं। किशोरीलाल गोस्वामी ने कुल 65 उपन्यास लिखे जिनकी प्रामाणिक सूची रामनरेश त्रिपाठी संपादित कविता कौमुदी (दूसरा भाग) में उपलब्ध है, वे पास में एक रजिस्टर रखते थे। जहाँ कोई बात उपन्यास में लिखने लायक कान में पड़ती या ऐसा कोई समाचार या घटना सुनते उसमें टीप लेते थे। उनका लेखन स्वांतः सुखाय होता था। जब कभी लहर उठती थी मन के भावों को गद्य या पद्य में कलमबंद कर लेते थे। साहित्य की हर विधा में उन्होंने लिखा। वह कहा करते थे - मैंने जब कभी जो कुछ लिखा है अपने दिल को लगी बुझाने के लिए, न किसी को रिझाने के लिए और न राह सुझाने के लिए।
उनके काल में रेनॉल्ड्स के उपन्यासों की धूम थी, जिनमें बड़े-बड़े घरानों के पापाचार की कथा होती थी। वह रेनॉल्ड्स का उच्चारण 'रोलंड साहब' करते थे। और उन्हें अपने काल का सबसे बड़ा उपन्यास लेखक मानते थे, कहा करते थे - उसी को पढ़कर मैंने उपन्यास लिखना सीखा और उसी को मैं अपना गुरु मानता हूँ।
उनमें गजब का जिंदादिली थी, जो बुढ़ापे तक बनी रही। रसिकता नस-नस में भरी हुई, बोटी-बोटी फड़कती हुई। देह जितनी फुर्तीली, वाणी उतनी ही रसीली। इठलाती चाल और छूटते ही मजाक करने की आदत। न बातें करने से थकते थे, न हँसने से। गगनभेदी ठहाका लगते थे। सौरभ विलासी इतने अधिक थे कि तकिए, गिलाफ और मसहरी में भी इत्र लगाते थे। बनारस में जिस खिड़की पर हाथ में सुमिरनी लिए बैठे रहते थे और गली में निकलने वाले हर मर्द और औरत पर निगाह रखते थे, उसके किवाड़ों तथा खिड़की की दीवारों पर भी इत्र लगा रहता था।"
गोस्वामी जी के बारे में शिवपूजन रचनावली में लिखा गया कि "रचना की बहुलता में अपने समय के बहुत से लेखकों से बाजी मार ले गए। पैंसठ तो केवल उपन्यास ही लिख डाले। फुटकर लेखों और कविताओं की गिनती कई सौ तक है। अनेक विषयों की छोटी-बड़ी पुस्तकें भी सौ से अधिक ही लिखीं। इतना सब तो उनके प्रकाशित साहित्य का ब्योरा है, अप्रकाशित भी बहुत कुछ था। 'बिहारी सतसई' की तरह सात सौ दोहों की 'किशोरी सतसई' भी उन्होंने काशी में दिखाई थी, जहाँ दूसरी बार उनके दर्शन और सत्संग का सुअवसर मिला - सन 1920 में, प्रथम दर्शन तो 'मतवाला मंडल' (कलकत्ता) में हुआ था - सन 1923 ई. में, जिस साल 'मतवाला' निकला था और गोस्वामी जी संभवतः अपने किसी शिष्य के यहाँ (कलकत्ता) पधारे थे, सो अचानक पहुँच गए संपादक को बधाई देने - "भाई क्या! खूब निकाला 'मतवाला'! वाह! शाबास! जीते रहो, दूध बताशा पीते रहो।" यही बनारसी बानी कहकर संपादक सेठ जी की पीठ ठोकी और मुंशी नवजादिकलाल की भी। मैं अलग बैठा प्रूफ पढ़ रहा था, सेठ जी ने परिचय दे दिया - मेरी पीठ का भी भाग्य जग गया। 'निराला' जी से मिलने के लिए उन्होंने बहुत उत्सुकता प्रकट की, पर संयोगवश वह कहीं बाहर निकल गए थे और उन्हें उसी दिन काशी लौट जाना था।" (शिवपूजन-रचनावली के खंड-4 पृष्ठ 128 तथा मासिक 'हिमालय' (पटना) वर्ष।, अंक-2 फाल्गुन 2002 वि. सन 1945 ई. में प्रकाशित)
शिवपूजन सहाय ने किशोरीलाल गोस्वामी को अत्यंत आत्मीय व्यक्तित्व के रूप में याद किया है, साहित्यकारों के बीच उनकी पहचान एक सहृदय और विनोदी व्यक्ति के रूप में थी। सड़सठ वर्ष के जीवन के अधिकांश क्षण उन्होंने साहित्य सेवा में बिताए। उन्होंने 'सुल्ताना रज़िया बेगम वा रंगमहल में हलाहल और लखनऊ की कब्र वा महलसरा, हृदयहारिणी वा आदर्श रमणी, लवंगलता वा आदर्श बाला, गुलबहार वा आदर्श भ्रातृ प्रेम, तारा वा क्षत्र-कुल-कमलिनी, कनक कुमारी मस्तानी, हिराबाई वा बेहयाई का बोरका, मल्लिका देवी वा बंग सरोजिनी, सोना और सुगंध वा पन्ना बाई, लाल कुँवर वा शाही रंगमहल जैसे लोकप्रिय उपन्यासों की रचना की। इसके अतिरिक्त देवकीनंदन खत्री के अधूरे उपन्यास 'गुप्त गोदना' (1922 -23) को उनकी आकस्मिक मृत्यु के दस वर्ष बाद पूरा करके प्रकाशित किया। साहित्य के साथ-साथ संगीत में गहरी रुचि रखने वाले किशोरीलाल गोस्वामी स्वभाव से रसिक और शौकीन थे वे वृद्धावस्था तक सौरभ-विलासी रहे। शिवपूजन सहाय, मुंशी नवजादिकलाल श्रीवास्तव ने संस्मरणों में उनके शौक और रसिक मिजाजी की चर्चा बारंबार की है। शिवपूजन सहाय ने बड़े ही विस्तार से किशोरीलाल गोस्वामी के इत्र, इलायची और बतकही प्रेम की चर्चा की है - "काशी में देखा था कि तकिया में भी इत्र लगाते थे, जहाँ खिड़की के सामने छोटे गद्दे पर बैठते थे, वहाँ की दीवार और खिड़की के किवाड़ तक में इत्र-लिहाफ की तो बात न पूछिए, मसहरी में भी इत्र! आखिर बुढ़ापे में यह हाल था, जवानी में राम जाने कैसे सौरभ-विलासी रहे होंगे।" (शिवपूजन-रचनावली के खंड-4 पृष्ठ-128)
जो लोग भी गोस्वामी जी को जानते-पहचानते थे उनका मानना था कि वे सर्वदा युवा मन के स्वामी थे। उन्होंने अपने मन की तरंग उठने पर रचनाएँ लिखीं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने उन्हें 'उपन्यासों का ढेर लगा देने वाला कहा।' वे हिंदी साहित्य के इतिहास में गद्य साहित्य का प्रसार : द्वितीय उत्थान (संवत 1950-1975) प्रकरण में किशोरीलाल गोस्वामी को बाबू देवकीनंदन खत्री के बाद दूसरे स्थान पर रखते हुए वे लिखते हैं - "उपन्यासों का ढेर लगा देने वाला दूसरे मौलिक उपन्यासकार पंडित किशोरीलाल गोस्वामी (जन्म संवत 1922, मृत्यु संवत 1989 है) जिनकी रचनाएँ साहित्य कोटि में आती हैं। इनके उपन्यासों में समाज के कुछ सजीव चित्र, वासनाओं के रूप रंग-रंग, चित्राकर्षक वर्णन और थोड़ा बहुत चरित्र-चित्रण भी अवश्य पाया जाता है।" गोस्वामी जी ने उपन्यासों में चित्ताकर्षक वर्णन अपनी रसिकता और जिंदादिली की प्रवृत्ति के कारण किए थे। उनमें विद्वत्ता, गांभीर्य और चंचलता का अद्भुत मिश्रण था। एक ओर तो वे हिंदी भाषा की उन्नति और प्रगति के लिए निरंतर प्रयत्नशील थे, जिसके प्रमाणस्वरूप उनके द्वारा बिहार के आरा जिले में स्थापित 'किशोरीलाल आर्य पुस्तकालय' को देखा जा सकता है साथ ही उपन्यास लेखन द्वारा वे हिंदी उपन्यासों का लगभग शून्य कोश भी समृद्ध कर रहे थे जैसाकि 'चाँद' पत्रिका के संपादक मुंशी नवजादिकलाल श्रीवास्तव ने 'माया' के किशोरीलाल गोस्वामी अंक, सितंबर 1932 में उनकी मृत्यु के बाद लिखा - "वे हिंदी के औपन्यासिक सम्राट थे। उन्होंने हिंदी में जितने उपन्यास लिखे हैं, उतने स्वर्गीय बाबू देवकीनंदन खत्री के सिवा और किसी ने नहीं लिखे। इसिलिए मैं तो उन्हें हिंदी का रेनाल्ड अथवा 'बंकिम' मानता हूँ। आज से तीस पैंतीस वर्ष पहले हिंदी में उनके उपन्यास की धूम थी। लोग बड़े चाव से उन्हें पढ़ते थे। देहात में एक युवक उनकी कोई पुस्तक लेकर पढ़ने बैठ जाता और श्रोताओं की मंडली उसे घेर कर बैठ जाती, मानों व्यासजी कथा बाँच रहे हैं। जो जरा देर कर के आता उत्सुकतापूर्वक पूछता - 'इससे पहले क्या हो चुका है भैया, 'जरा मुझे बता लो तो आगे पढ़ो।' उस समय आज कल की तरह हिंदी प्रचारिणी सभाएँ न थीं, अखबार इतने न थे। लाला लोग अपने लड़कों को उर्दू और फारसी ही पढ़ाया करते थे। हिंदी पढ़ाकर बच्चों का वक्त जाया करना उन्हें स्वीकार न था। परंतु लड़के लुक-छिपकर इन उपन्यासों को पढ़ने के लिए अपना थोड़ा सा वक्त जाया कर ही डालते थे। इन उपन्यासों की बदौलत उन दिनों हिंदी का खासा प्रचार हो रहा था। इन उपन्यासों में आने वाले नाम हिंदी के थे, कथा का संबंध हमारे समाज से था और भाषा भी बड़ी सरल आमफहम थी, इसलिए पढ़ने वालों को इनमें 'अलिफलैला' और हातिमताई की अपेक्षा अधिक आनंद प्राप्त होता था। इन उपन्यासों की बदौलत हजारों नहीं लाखों आदमी हिंदी सीख गए और अखबारों में इसके लिए कोई 'जोरदार अपील' भी नहीं निकालनी पड़ी। अपने युग के श्रेष्ठ औपन्यासिक होने के सिवा गोस्वामी जी ब्रजभाषा के सुकवि थे। वे धाराप्रवाह कविताएँ लिख सकते थे। उनकी उक्तियाँ उच्च कोटि की और भावपूर्ण होती थीं। उनकी रचनाओं की तादाद भी बहुत बड़ी है। इसके सिवा वे उर्दू में भी गजलें कहा करते थे। परंतु गोस्वामी जी की सबसे बड़ी विशेषता थी उनकी रसिकता - जिंदादिली। वे सचमुच 'रसिक किशोरी' थी। मालूम नहीं उन्हें हास्य रस पूर्ण कितने लतीफे याद थे। उनके प्रत्येक वाक्य में, प्रत्येक शब्द में रसिकता भरी होती थी। व्यंग्य विनोद की आप सजीव मूर्ति थे। बड़ी मधुर चुटकियाँ लिया करते थे। उनकी बातें सुनने में बड़ा आनंद आता था। वे हँसना और हँसाना खूब जानते थे जीवन के अंतिम दिनों में शरीर से वृद्ध हो गए थे, परंतु उनकी जिंदादिली में कोई कमी नहीं आई थी, रसिकता का तरु जरा भी सूखा न था। हृदय में मानों वही जवानी की उमंग मौजूद थी। किशोरीलाल गोस्वामी भारतेंदु के साथ बिताए क्षणों की चर्चा अक्सर किया करते थे। उन्हें भारतेंदु के जीवन और उनके निजी व्यवहार से संबंधित हजारों प्रसंग स्मरण थे। वे एक स्वस्थ मस्तिष्क और अच्छी स्मरण शक्ति के स्वामी थे। भारतेंदु हरिश्चंद्र और उनके समकालीनों के विषय में उनकी स्मरण शक्ति अद्भुत थी। 'हरिश्चंद्र युग के तो गोस्वामी जी जीते-जागते इतिहास थे। उस समय की साहित्य चर्चा छिड़ने पर घंटों तक बड़ी ही मजेदार बात सुनाया करते थे। भारतेंदु को रसिकता, उनकी जिंदादिली, उनकी उदारता, उनकी दानशीलता और उनके अलौकिक साहित्य प्रेम की रोचक कथाएँ सुनकर बड़ा आनंद आता था। जी में आता थी कि ये कहते रहें और हम सुनते रहें। रसिकप्रवर भारतेंदु समय समय पर किस तरह लोगों को छकाया करते थे, वह वर्णन बड़ा ही रोचक होता था। इसके बाद भारतेंदु के अंतिम जीवन की करुणापूर्ण बातों की बारी आती थी। लाखों रुपये खर्च करके भारतेंदु ने अपना अंतिम जीवन किस तरह व्यतीत किया था, उसे सुन कर आखों में आँसू आए बिना नहीं रह सकता था। परंतु उसमें भी भारतेंदु वैसे ही उदार वैसे ही थे, दरिद्रता को उन्होंने स्वयं वरण कर लिया था। इस जीवन से वे उसी समय दुखी होते थे, जब उनके पास किसी जरूरतमंद को कुछ देने के लिए पैसे नहीं होते थे। राजा शिवप्रसादसितारेहिंद के जीवन की भी बहुत सी रोचक घटनाएँ गोस्वामी जी को याद थीं। उन्हीं के सत्संग के कारण गोस्वामी जी के हृदय में हिंदी सेवा का भाव उदय हुआ था। इसीलिए वे उनके प्रति बड़ी श्रद्धा प्रकट करते थे।
धर्म चर्चा और साहित्य सेवा, यहीं दो गोस्वामी जी के मनोरंजन और समय अतिवाहित करने की प्रधान सामग्रियाँ थीं। धर्म-कर्म से अवकाश पाते ही वे साहित्य चर्चा में लग जाते थे। पुराने साहित्यकार होने पर हिंदी की वर्तमान प्रगति से वे अनभिज्ञ नहीं थे। आजकल के नए लेखकों और कवियों की रचनाएँ भी वे बड़े चाव से सुनते या पढ़ा करते थे। वे ब्रजभाषा के पृष्टपोषक थे। परंतु खड़ी बोली या रहस्यवाद के विरोधी न थे। हिंदी को उसी पुराने दायरे में कैद रखना उन्हें पसंद न था। 'वसुधैव कुटुंबकम्' की तरह सारा हिंदी संसार ही गोस्वामी जी का अपना था। वे प्रत्येक हिंदी प्रेमी से परम आत्मीय की तरह मिलते थे। सबसे आपका व्यवहार प्रेमपूर्ण होता था। उनका कोई परिचित साहित्यसेवी अगर काशी जाकर उनसे बिना मिले ही चला आता था और वे सुन पाते थे तो बिना उलाहना दिए नहीं रहते थे। हों, भाई अब मैं बूढ़ा हो गया हूँ। अब क्यों हमारे पास आओगे? इस उलाहने में कितनी आत्मीयता थी - कितना प्रेम था इसे वही समझ सकता है, जो उन्हें अच्छी तरह जानता है। उन्होंने कविता या लेख माँगने पर कभी किसी पत्र संपादक को निराश नहीं किया। परंतु बिना माँगे वे किसी को कुछ नहीं देते थे। वे वृद्ध हो गए थे परंतु उनकी स्मरण शक्ति पूर्ववत थी। आँखें काम न देती थीं, परंतु दिमाग खूब काम करता था। आवश्यकता पड़ने पर कहानी लेख प्रहसन और कविता जो चाहिए लिखवा दिया करते थे। मानों पहले से तैयार बैठे हों। कहानी के 'प्लाट' तो मानों उनके सामने हाथ बाँधे खड़े रहते थे। सरस्वती उनकी जिह्वा पर विराजमान थीं। फलतः गोस्वामी जी के गोलोकवास से हिंदी की क्षति हुई है, उसकी पूर्ति निकट भविष्य में संभव नहीं।" (मुंशी नवजादिकलाल श्रीवास्तव - संपादक चाँद, 'गोस्वामी जी कुछ बातें' - 'माया' किशोरीलाल गोस्वामी अंक, सितंबर 1932)।
किशोरीलाल गोस्वामी स्वभाव से हँसोड़, लोगों से मिलने-जुलने वाले, बतरस रुचि रखने वाले थे। उनके समकालीनों ने संस्मरणों में उनकी फुर्तीली देह, रसीली वाणी और गपशप करने के प्रावीण्य पर प्रकाश पड़ता है। शिवपूजन सहाय ने उनके विषय में अत्यंत रोचक ढंग से संस्मरण लिखा है - "काशी में नंदन साहू की गली में, उनका अपना खास मकान था - छोटा सा, सुंदर, सजीला, आरामदेह - एक शिष्य का दिया हुआ। ऊपर वाले कमरे की खिड़की पर सुमिरनी लिए बैठे रहते थे। मजाल नहीं कि कोई साहित्यिक व्यक्ति उनकी आँखें बचाकर कर निकल जाए! 'राम झरोखे से बैठकर सबका मुजरा लेय' - गली से गुजरने वाले हर एक व्यक्ति पर उनकी पैनी निगाह पड़ती थी और किसी परिचित साहित्यिक को कन्नी दबाकर निकलते देख दूर से ही ललकारते थे - "का हो! ऐसे भौं बचा के सरके जात हौ?" फिर तो इस तरह उलझ जाते कि लाख जरूरी काम से कोई जाता हो, एकाध घंटा ठिठका ही लेते। मेरे मित्र संस्कृत मासिक 'सुप्रभातम्' के संपादक पंडित केदारनाथ शर्मा सारस्वत का मकान उनके पड़ोस में (भिखारीदास के गली में) है, जिसमें नागरी नाटक मंडली के प्रसिद्ध अभिनेता पंडित मंगली प्रसाद अवस्थी (अब स्वर्गीय) भी रहते थे, और बगल के मकान में रहते हैं। सेंट्रल हिंदू स्कूल के अध्यापक साहित्य रसिक श्री साँवल जी नागर। मैं प्रायः इन लोगों के पास जाया करता और कभी हम लोग एक साथ उनकी ओर होकर निकलते, दूर से ही बनारसी बोली में आवाज देते - "क्यों राजा! इस तरह आँख चुराकर बुढवा को झाँसा दोगे?" उनके आवाज कसने के कई निराले ढंग और लटके थे! उनकी छेड़खानियों में विशुद्ध स्नेह परायणता और सहृदयता होती थी। पुकारकर झट नीचे उतर आते और दरवाजा खोलकर ऊपर के बैठकखाने में ले जाते-अपने हाथों पान बनाकर खिलाते, कभी-कभी अपने ही हाथों इत्र भी लगा देते, फिर साहित्यिक पँवारा शुरू हो जाता! भारतेंदु जी के दरबार की बातें सुनाते, जहाँ वह दस-बारह वर्ष के बालक के रूप में अपने नाना के साथ जाया करते थे, 'सरस्वती' पत्रिका के जन्म की कहानी सुनाते, जिसके आदि संपादकों में वे भी एक थे; कभी मौज आ जाती तो अपना बस्ता खोलकर पोथा निकालते, जिसमें से अपनी सतसई के दोहों की चाशनी चखाते -समस्यापूर्तियाँ सुनाते-कवित्त सवैयों को रसानुकूल सवार में पढ़कर चित्र खड़ा कर देते। नई-नई चीजें भी तैयार करते रहते थे। जब जैसी तरंग आ गई, तुरंत लिखकर रख छोड़ा। कभी संस्कृत के श्लोकों में, कभी ब्रजभाषा के विविध छंदों में, कभी खड़ीबोली के पद्यों में कभी-कभी ललित गद्य में भी, अपने सरस उद्गारों और हृदयोच्छ्वासों को संचित करके रखते जाते। हमलोग नीचे उतरकर आपस की बातचीत में कहते - "यह बूढ़ा न जाने केशवदास का अवतार है या पंडितराज जगन्नाथ का! रसिकता इसकी नस-नस में समाई हुई है - बोटी-बोटी इसकी फड़कती रहती है।" मैं तो उनकी जिंदादिली और उमंग-तरंग देखकर दंग रहता। हर घड़ी बुढ़ापा के पीछे लट्ठ लिए पड़े रहते। हम जवान भी उनके हौसले देख दंग रह जाते। उनके स्फूर्तिशाली अंगों की भाव-भंगिमा भी देखते ही बनती थी। बोलते समय के अंग संचालन से भी थकते न थे। हम लोग उन्हें जरा-सा छेड़ देते, बस वे सजीव ग्रामोफोन बन जाते। न जाने ईश्वर ने उन्हें लगातार बोलते रहने और लिखते जाने की कितनी शक्ति दी थी। फागुन और सावन में तो साहित्यिक होली और कजली भी गाकर सुनाने लगते थे - "यह भारतेंदु की बनाई हुई है, अब एक 'प्रेमघन' की भी सुन लो, अरे अंबिकादत्त व्यास और प्रतापनारायण मिश्र की भी एकाध सुनते जाओ।" इस तरह, ऐसा लासा लगाकर कंपा भिड़ाते कि लाख पंख फड़फड़ाने पर भी सहसा बाहर निकलना कठिन हो जाता। कभी-कभी हम लोग समयाभाव-वश उनके शिकंजे से बचने के लिए उधर का रास्ता ही छोड़ देते। पर जब कभी दो-चार घंटे का निश्चिंत अवकाश मिलता, हम लोग मंसूबा बाँधकर उनसे मिलने जाते। मगर गली के नुक्कड़ पर पहुँचते ही जानबूझकर छिप निकलने का नाट्य करते; क्योंकि उनका आवाज कसना सुनने का यही तरीका था। प्रायः अपराह्न में ही वह अपनी खिड़की पर बैठते थे - संध्यावंदन के पहले तक; पूर्वाह्न में कभी-कभी एकाध घंटे के लिए मेले-तमाशे की मौज लेने बैठे जाते थे। इसलिए प्रायः पूर्वाह्न में उधर का रास्ता खतरे से खाली रहता; क्योंकि उस समय अगर देख भी लेते तो ऊपर से ही दो-चार बातें करके छुट्टी दे देते। कारण, प्रातःकाल से मध्यान्ह काल तक स्नान ध्यान और खान-पान का क्रम चलता रहता, श्रीमद्भागवत और भगवद्गीता का पाठ रोज करते थे। स्वयंपाकी थे, रेशमी कपड़ा पहनकर एक ही जून चौका चेतते और रात में सिर्फ दूध लेते। निंबार्क-संप्रदाय में भोजन की स्वच्छता और विविधता का क्या कहना! स्वयं चावल अमनिया करते, साग-भाजी सुधारते और मगही पान को बड़े प्रेम से पोसते थे। उनसे नाना प्रकार के भोज्य पदार्थों की नामावली सुनने में बड़ा आनंद आता था। षटरस भोजन के उतने प्रकार निंबार्क संप्रदाय में भी कम लोग जानते होंगे, और जानते भी हों तो असंख्य नाम याद रखना सबका काम नहीं।
गोस्वामी जी तो मीठा-नमकीन के अनगिनत भेद बतलाने लगते थे। उनके गोपाल जी को अन्नकूट के दिन क्या-क्या भोग लगता है, यह गिनाने लगते थे तो जान पड़ता था कि भोजन-विषयक कोई 'अमरकोश' घोख गए हैं। इतना ही नहीं, गोपालजी कितने प्रकार के फूलों की माला पहनते हैं, अपनी गायों और उनके बछड़ों को कैसे-कैसे सुघर-सलोने नामों से पुकारते हैं - इत्यादि बातें भी पूरे विवरण के साथ कह जाते थे। उस वृद्धावस्था में उनकी स्मृति शक्ति देखकर आश्चर्य होता था। उन्हें वस्तुओं के नाम गिनाते देख 'जायसी' की याद आ जाती थी। मिठाइयों, गहनों, खिलौनों और फूलों के नामों की असंख्यता तो आश्चर्यजनक थी ही, एक बार किसी नवाब साहब के साथ मुलाकात की चर्चा करते हुए घोड़ों की किस्में, लक्षण-सहित गिनाने लगे तो दंग रह जाना पड़ा! ...एक बार मैंने देखा कि उनके पास 'हिंदी शब्द सागर' का एक छपा हुआ फार्म था, जिस पर आदि से अंत तक बहुत ही घनी लिखावट में अनेक प्रकार के संशोधन और परिवर्धन अंकित थे। मुद्रित शब्दों के अर्थों में भी वृद्धि की गई थी और बहुत से नए शब्द भी अर्थ सहित जोड़े गए थे। वे शायद मंगला प्रसाद पारितोषिक अथवा देव पुरस्कार के निर्णायक भी थे - ठीक याद नहीं, किसके मगर देखा कि सहसा ध्यान में आ जाता था कि इन स्थलों में अमुक अशुद्धि अथवा भ्रांति है। आज मुझे बहुत ग्लानि हो रही है कि उस समय अज्ञतावश मैंने कुछ नोट नहीं लिए, अन्यथा आज वे कितने अनमोल और उपयोगी होते! उनके लिखाए हुए कुछ श्लोक और शेर मेरे पास हैं; पर वे भी संप्रति यहाँ प्रस्तुत नहीं हैं, 'पुस्तकस्था विद्या' का क्या भरोसा! इस समय बस एक ही श्लोक याद है -
"राधे त्वमधिकधन्या हरिरपि धन्यो भवतार कोअपि।
मज्जति मदनसमुद्रे तव कुचकलशावलंबनं कुरुते।"
मुझ पर उनकी अकारण कृपा थी। एक दफा जब छत से गिरने के कारण बनारस में ही मेरा दाहिना पैर टूट गया था, तब मुझे देखने के लिए शहर से दूर बरुना नदी के पास, तेलियाबाग की एक फुलबाड़ी में, पहुँच गए थे - यद्यपि कहीं भी आते-जाते न थे, यहाँ तक कि साल-भर में शायद ही कभी अपने घर से बाहर निकलते हों। फिर जब बनारस में रहते हुए ही मेरी तीसरी शादी हुई, खास तौर से बुलाकर दांपत्य जीवन संबंधी अनेक खास एवं हितकर उपदेश दिए, जो मेरे वैवाहिक जीवन में सचमुच बड़े आनंददायक और फलप्रद सिद्ध हुए। वे ज्योतिष के भी अच्छे ज्ञाता थे। मेरे प्रथम पुत्र के जन्म के समय मेरी पत्नी की अवस्था अत्यंत संकटापन्न हो गई तो मैं दौड़ा हुआ उन्हीं के पास गया; क्योंकि एक मास पूर्व से ही उनके बतलाए हुए उपचार लाभ पहुँचा रहे थे। मुझे उदास देखकर भी बहुत प्रसन्न हुए और फूल की थाली में एक यंत्र लिखकर दिया कि तुरंत ले जाकर उसे दिखा दो। ज्यों ही मैं थाली लेकर नीचे गली में उतरा, पुकारकर कहा - यह बधाई लेते जाओ और गुलाब का एक फूल मेरे हाथ की थाली में गिरा दिया। झटपट घर पहुँचकर मैंने वैसा ही किया जैसा उन्होंने कहा था। रामबाण सा असर हुआ। दस-पंद्रह मिनट से ज्यादा देर न लगी। मैं फिर उनकी सेवा में पहुँचा। देखते ही ठठाकर हँसे। एक लड्डू मेरे हाथ पर रखकर बोले - इसे प्रसूति को खिला देना और यह यंत्र सूतिका गृह के द्वार पर लटका देना। इसके बाद एक दिन बच्चे को आशीर्वाद देने भी आए और जन्म का मुहूर्त आदि पूछकर तत्काल ही भविष्य-कथन किया, जो अभी तक तो सच ही साबित हुआ है।
मेरे जिले (शाहाबाद) के सदर शहर 'आरा' में वे अनेक वर्षों तक रह चुके थे। जेलखाने के तालाब के पास नारायणदास जी अग्रवाल के गोपाल मंदिर में वे पुजारी थे। उनके पिता भी उसी पद पर थे। संयोग की बात, उसी मंदिर के उत्तराधिकारी बालक का शिक्षक बनकर मुझे भी डेढ़-दो साल उस मंदिर में ही रहना पड़ा था - संभवतः 1909-10 में, जब मैं हाईस्कूल का छात्र था। उसी समय सुना था कि इसी मंदिर में रहकर गोस्वामी जी ने संस्कृत पढ़ी थी और साहित्य सेवा भी शुरू की थी। उनके एकमात्र पुत्र पंडित छबीलेलाल जी गोस्वामी का जन्म यहीं हुआ था। आरा में उन्होंने सन 1881 में, आर्य-पुस्तकालय की स्थापना की थी, जो इस देश में हिंदी का सबसे पहला सार्वजनिक पुस्तकालय था; क्योंकि बाबू गदाधर सिंह जी का आर्य भाषा पुस्तकालय 1884 ई. में स्थापित हुआ था, पर उसका रूप सार्वजनिक नहीं था-एक प्रकार से वह घरेलू पुस्तकालय था, जो 1913 ई. में काशी नागरी प्रचारिणी सभा के स्थापित होने पर 1916 में उसमें मिलकर ही सार्वजनिक हो सका। इस प्रकार, गोस्वामी जी स्थापित किया हुआ आर्य-पुस्तकालय ही हिंदी का सर्वप्रथम सार्वजनिक पुस्तकालय जान पड़ता है। यदि और ठौर नहीं तो कम-से-कम बिहार में वह पहला ही सार्वजनिक हिंदी पुस्तकालय था। जो हो, बिहार में बहुत दिनों तक रहने के कारण-विशेषतः भोजपुरी क्षेत्र के केंद्र में वे भोजपुरी बोली से खूब परिचित थे, कभी-कभी मेरे साथ उसी बोली में धड़ल्ले से बातें करने लग जाते थे, और कभी-कभी विनोद-वश चिढ़ाने के लिए भी बोल जाते थे। भोजपुरी की ठगी, कुँवरसिंह, जगदीशपुर की गुप्त कथा, रोहतासगढ़ की रानी, बिहार रहस्य आदि उनके उपन्यासों के पढ़ने से इस बात की झलक मिल जाती है कि यहाँ के सामजिक जीवन का उन्होंने कितनी गहराई से अध्ययन और निरीक्षण किया था।
आधुनिक समालोचकों की दृष्टि में उनकी रचनाओं का साहित्यिक मूल्य नहीं ऐतिहासिक मूल्य है, और समीक्षकों के विचारानुसार ही उनमें मौलिक प्रतिभा भी नहीं थी, किंतु जो लोग पुराने जमाने की चीजों को भी नई कसौटी पर कसते हैं, उन्हें अपने सामने के युग से इतना आधिक प्रभावित न होना चाहिए कि पुरानी चीजें किसी भी दृष्टि से जँचे ही नहीं!
गोस्वामी जी की रचनाओं के विषय में एक बार पंडित छबीलेलाल जी गोस्वामी ने काशी में कहा था कि प्रयाग के एक समर्थ प्रकाशक ग्रंथावली के रूप में प्रकाशित करने वाले हैं; किंतु हिंदी-संसार के प्रकाशक और पुस्तक प्रेमी पाठक अभी तक ग्रंथावलियों का महत्व नहीं समझ सके हैं। आजकल तो सभी चीजें केवल कला की कसौटी पर ही परखी जाती हैं इसलिए गोस्वामी जी की विराट ग्रंथावली के प्रकाशित होने की कोई आशा नजर नहीं आती - यद्यपि उनकी कृतियों में भाषा साहित्य से संबंध रखने वाली बहुत-सी बातें खोज करने लायक हैं। पूज्य हरिऔधजी की तरह उन्होंने भी गद्य में दो तरह की शैलियाँ अपनाई हैं। उनकी शैली में उनकी असीम रसिकता और उनकी चहकती हुई प्रकृति बोल रही है। बुढ़ापे को उनका रसीलापन खदेड़े फिरता था पके बाल सँवारे, रोली का टीका दिए, जब खिड़की पर छैला बने बैठते थे तब साक्षात रसराज-से जान पड़ते थे। नाटा कद, गोरा बदन, मंद मुस्कान इठलाती चाल और छूटते ही मजाक करने की प्रवृत्ति देखकर कुछ लोग उन्हें ठीक समझ नहीं पाते थे। अपनी रचनाओं में भले ही वे बहुत बड़े रसिया दीख पड़ते हों, पर उनकी विद्वता हर एक मिलने वाले व्यक्ति पर धाक जमाने वाली थी। जिन्हें उनके सत्संग का कभी सौभाग्य प्राप्त हुआ होगा, वे ही उनके प्रकर्ष पांडित्य का अनुमान कर सकते हैं।
अपनी गंभीर मुद्रा से किसी पर अपने व्यक्तित्व की छाप छोड़ने का दंभ उनमें नहीं था। उनकी मस्तानी तबीयत उन्हें गंभीर बनने ही नहीं देती थी। चाहे कोई बुरा माने या नुक्ताचीनी करे, इसकी चिंता उन्हें नहीं थी, उनकी मस्ती हमेशा अपने रंग में रहती थी। भला अब कोई क्या खाकर उतनी मस्ती पालेगा! अपनी रचनाओं के विषय में बहुत से साहित्यिकों और समीक्षकों की राय वे सुन चुके थे; पर उसका कोई असर उनके दिल पर न था। जब कभी लहर उठती, मन के भावों को कलमबंद करके रख छोड़ते। जब जी में आता, एकांत में उसी से दिल बहला लेते या कोई तबीयतदार समझदार मिल जाता तो उसे सुनाने लग जाते। इसी में उन्हें अपनी कृतियों की सार्थकता जान पड़ती थी और इतने ही में उन्हें संतोष भी था। वे तो स्पष्ट कहा करते थे - "मैंने जब कभी जो कुछ लिखा है, अपने दिल की लगी बुझाने के लिए, न किसी को रिझाने के लिए।" ये शब्द ठीक उन्हीं के हैं, जो अपनी वास्तविकता के साक्षी आप ही हैं। मेरा खयाल है कि आज हम उन्हें केवल औपन्यासिक के रूप में ही आधुनिक कला की तुला पर तौलते और मूल्य आँकते हैं; परंतु कल जब हम उनकी विविध विषयक विपुल रचनाओं को एकत्र करके प्रकांड साहित्य राशि के बल पर मूल्य आँकने बैठेंगे, तब आज से कहीं अधिक उनका मूल्यांकन कर सकेंगे। यों तो हिंदी संसार में मूल्यांकन का जो औसत है, उसके हिसाब से तो हम उनका काफी सम्मान कर चुके हैं! उनके जीते-जी हमने उन्हें भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का सभापति बना दिया और उनके गोलोकवास पर 'माया' (प्रयाग) का स्मृति-अंक निकाल दिया! बस, इससे अधिक हम करते ही क्या हैं! कितनों के लिए तो हम इतना भी न कर सके!" - (मासिक 'हिमालय' (पटना) वर्ष 1, अंक 2, फाल्गुन 2002 वि. सन 1945 ई.)।
इस संस्मरण से किशोरीलाल गोस्वामी के व्यक्तित्व पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। किशोरीलाल गोस्वामी जी का पहला उपन्यास सन 1890 ई. में 'प्रणयिनी परिणय' शीर्षक से प्रकाशित हुआ। इसके बाद 1892 में उन्होंने 'सुख शर्वरी' नामक उपन्यास का बंगला से अनुवाद किया। इसके अतिरिक्त बंकिमचंद्र चटर्जी के उपन्यास 'इंदिरा' का भी अनुवाद किया। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इन्हें हिंदी का पहला उपन्यासकार बताते हुए लिखा -"संवत 1955 में उन्होंने 'उपन्यास' मासिक पत्र निकाला और द्वितीय उत्थान काल के भीतर 65 छोटे-बड़े उपन्यास लिखकर प्रकाशित किए। अतः साहित्य की दृष्टि से हिंदी का पहला उपन्यासकार इन्हीं को कह सकते हैं। और लोगों ने भी मौलिक उपन्यास लिखे पर वे वास्तव में उपन्यासकार न थे। और चीजें लिखते-लिखते वे उपन्यास की ओर भी जा पड़े थे। पर गोस्वामी जी वहीं घर करके बैठ गए। एक क्षेत्र उन्होंने अपने लिए चुन लिया और उसी में रह गए...।" (प्रकरण-4 गद्य साहित्य का प्रसार - पृ. 357, हिंदी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल, प्रकाशन संस्थान, संवत-2012)
गोस्वामी जी ने अपने सड़सठ वर्ष के जीवन काल में लगभग 65 उपन्यास लिखे थे, जो उनकी ख्याति का मूलाधार हैं, वे सर्वतोमुखी प्रतिभा संपन्न थे। गोस्वामी जी ने हिंदी के अतिरिक्त संस्कृत और उर्दू में भी रचनाएँ लिखीं। सन 1913 में उन्होंने श्रीसुदर्शन प्रेस की स्थापना की। विश्वंभर मानव ने उनके प्रमुख उपन्यासों की सूची प्रस्तुत की है, जो इस प्रकार है -
1. प्रणयिनी परिणय - 1990
2. त्रिवेणी वा सौभाग्य श्रेणी - 1990
3. हृदयहारिणी वा आदर्श रमणी - 1990
4. लवंगलता वा आदर्शबाला - 1990
5. लीलावती वा आदर्श सती - 1901
6. तारा वा क्षात्र कुल कमलिनी - 1902
7. राजकुमारी - 1902
8. चपला वा नव्य समाज चित्र - 1903
9. कनक कुसुम वा मस्तानी - 1904
10. सुल्ताना रज़िया बेगम वा रंगमहल में हलाहल - 1904
11. मल्लिका देवी वा बंग सरोजिनी - 1905
12. हिराबाई वा बेहयाई का बोरका - 1905
13. जिंदे की लाश - 1906
14. पुनर्जन्म वा सौतिया डाह - 1907
15. सोना और सुगंध वा पन्नाबाई - 1911
16. गुलबहार वा आदर्श भ्रातृ-स्नेह - 1916
17. लखनऊ की कब्र वा शाही महल सरा - 1917
18. अँगूठी का नगीना - 1918
गोस्वामी जी की ख्याति मुख्यतः उनके ऐतिहासिक रोमानी उपन्यासों के कारण है। उन्होंने अपने ऐतिहासिक रोमानी उपन्यासों में पाठकों की रुचि का ध्यान रखते हुए अलंकृत भाषा का प्रयोग किया, उपन्यासों में बीच-बीच में हिंदी, संस्कृत और उर्दू काव्यांशों का प्रयोग किया साथ ही कौतूहल, रोमांच और तिलिस्मी घटनाक्रम का आयोजन भी। गोस्वामी जी ने हिंदी के प्रारंभिक उपन्यासकारों में अपना एक विशिष्ट स्थान अपने जीवन काल में ही सुरक्षित कर लिया था। वे स्वयं अपने उपन्यासों का प्रकाशन एवं वितरण करते थे। गद्य लेखन के अतिरिक्त उनकी रुचि काव्य-रचना में भी थी। उन्होंने बिहारी सतसई की तर्ज पर 'किशोरी सतसई' भी लिखी थी, जिसे उनके पुत्र छबीले लाल गोस्वामी ने अपनी मृत्यु के कुछ समय पहले प्रकाशन के लिए श्री राधा विनोद गोस्वामी को दी थी। लेकिन तब उसका प्रकाशन नहीं हो सका। बाद में चलकर नागरीप्रचारिणी पत्रिका में इसका धारावाहिक प्रकाशन हुआ। नागरीप्रचारिणी पत्रिका के अंक-1 वर्ष 71, संवत 2023 वि. अर्थात सन 1966 ई. में 'किशोरी सतसई' की पहली किश्त का प्रकाशन 'पौराणिकी' शीर्षक के अंतर्गत किया गया 'पौराणिकी' में 'सतसई' के विषय में संपादक ने लिखा-"पूरी सतसई स्व. छबीले लाल गोस्वामी के द्वारा सुपाठ्य अक्षरों में डिमाई आकार की छह कापियों तथा 227 पृष्ठों पर लिखी हुई है। प्रथम पृष्ठ पर दो दोहे लिखने के पश्चात पाद टिप्पणी में लेखक के हाथ की पाँच टिप्पणी इस प्रकार हैं -
(1.) भक्ति विषयक 709 दोहे हैं।
(2.) श्री किशोरीलाल गोस्वामी कृत है।
(3.) छबीले लाल गोस्वामी संपादित है।
(4.) छपने पर मूल्य 11) होगा।
(5.) सरकार को ग्रामों के लिए 1 चार आने में दी जाएगी।
छबीलेलाल गोस्वामी 31/7/39
गोस्वामी जी मिलनसार और साहित्यप्रेमी होने के साथ साथ आदर्शवादी व्यक्ति थे जिन्होंने बहुतों को साहित्य सेवा का मार्ग दिखाया, व्याकरण के आचार्य किशोरीदास वाजपेयी ने पंडित किशोरीलाल गोस्वामी के संदर्भ में अपने अनुभवों को स्मरण करते हुए लिखा है - " गोस्वामी जी काशी छोड़ आए थे और पट्टी में रहने लगे थे। वे निंबार्क-संप्रदाय के वैष्णव थे। इसी संप्रदाय का मुख-पत्र 'वैष्णव-सर्वस्व' नाम से सन 1915-16 में निकाला था। उनका अपना छोटा-सा प्रेस था - 'सुदर्शन पत्र' इसी प्रेस में छपता, थल फाटक के बाहर, बाईं ओर, ऊपर की मंजिल में वे रहते थे। इसी पत्र के तीसरे या चौथे अंक में मेरा लेख छपा था - 'दशधा भक्ति' गोस्वामी जी ने इस लेख को बहुत पसंद किया था और मुझे इस पत्र का सहायक संपादक बना दिया था। ...मैं उस समय संस्कृत का छात्र था, पर 'वैष्णव-सर्वस्व' के माध्यम से गोस्वामी जी के समीप पहुँच गया था और यों हिंदी की ओर उन्मुख हो गया।" (पंडित किशोरीदास वाजपेयी ग्रंथावली-खंड 4, पृ. 447, संपादक विष्णुदत्त राकेश)
संस्मरण से यह स्पष्ट है कि पंडित किशोरीलाल गोस्वामी ने अपने समकालीनों में हिंदी साहित्य की रुचि-निर्माण करने में अग्रणी भूमिका निभाई थी। यद्यपि उन्हें मुस्लिम विरोधी लेखक समझा जाता है परंतु उनकी रचनाओं में उनका उदार एवं धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण देखना भी जरूरी है, वे लिखते हैं - 'खुदा के सामने हिंदू और मुसलमान दोनों बराबर हैं। हिंदू उसे राम कहकर पूजते हैं और मुसलमान खुदा कहकर। हिंदू उसकी मूरत बना कर पूजते हैं और मुसलमान बगैर मूरत रखे ही उसका ध्यान करते हैं। लेकिन खुदा हिंदू और मुसलमान दोनों का एक ही है और वह दोनों की परस्तिश में एक सा खुश होता है। मजहबी तअस्सुव को बिलकुल छोड़कर हिंदू और मुसलमान को एक सा समझना ही उस बादशाह के हक में बिहतर होगा, जो हिंदुस्तान की सल्तनत की बागडोर अपने हाथ में लेकर उसे बराबर कायम रखना चाहे।' (सुल्ताना रज़िया, पृष्ठ 11) औपनिवेशिक भारत और हिंदी के आरंभिक साहित्य विशेषकर उपन्यास साहित्य को देखने के लिए गोस्वामी जी की रचनाओं को देखा जाना चाहिए, तत्कालीन समय और समाज के समाजशास्त्रीय और ऐतिहासिक अध्ययन के बीज हमें उनके उपन्यासों में मिलते हैं। हिंदी पट्टी में नवजागरण एवं उसके बुद्धिजीवियों की सीमाओं और क्षमताओं को बताने में किशोरीलाल गोस्वामी जैसे लेखकों का रचनात्मक व्यक्तित्व एवं जीवन वृत्त शोध की नई दिशा दिखाने में सहायक हो सकता है।